स्वैः ष एवै रिरिष्ज्ञीष्ट युर्जनः। 8.18.13
वह दुर्जन अपने कर्मों से ही दुःखित हुआ।
कुत्सित कर्म करने से दुर्जन कहलाते हैं। कुत्सित कर्मों का अन्त दुःख ही होता है। कुत्सित कर्म करने से सदैव बचना चाहिए। कुकर्मों से सदैव क्षणिक सुख जान पड़ता है, किन्तु अन्त सदैव दुःख पर ही होता है। अपयश और कष्ट पीछा नहीं छोड़ते हैं। सुकर्म ही करने चाहिएं। सुसंगत में रहना चहिए जिससे जीवन सुखमय हो सके और समाज में यश एवं सम्मान की प्राप्ति हो।
सुकर्म संग होती है आस। होता सबकुछ सदा पास॥
पत्राचार पाठ्यक्रम
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ज्योतिष निकेतन सन्देश
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